GS Paper-1 Indian Society (भारतीय समाज) Part-1 (Q-22)

GS PAPER-1 (भारतीय समाज) Q-22
 
GS Paper-1 Indian Society (भारतीय समाज)


Q.22 - स्वतंत्रता-पूर्व भारतीय महिलाओं के उत्थान के लिये उठाए गए कदमों का परीक्षण कीजिये।
उत्तर :
  भारत में स्वतंत्रता के पूर्व कई तरह की सामाजिक बुराइयाँ प्रचलित थीं। जैसे- सती प्रथा, बाल-विवाह, विधवा को पुनः विवाह करने की अनुमति, स्त्री-शिक्षा पर मनाही आदि। इन बुराइयों को समाप्त करने के लिये भारतीय सुधारकों के साथ-साथ कई ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा भी प्रयास किये गए।
  भारतीयों में राजा राममोहन राय ने मानव समाज को कलंकित करने वाली सती प्रथा के खिलाफ ज़ोरदार आवाज़ उठाई और विलियम बेंटिक के सहयोग से 1829 में इस प्रथा को अवैध घोषित करवाया।
  ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह को मान्यता दिलाने के लिये प्रयास किया। उन्होंने वेदों के माध्यम से इसे सिद्ध करने की कोशिश की और हज़ारों लोगों से हस्ताक्षरित पत्र को सरकार के समक्ष भेजा। अंततः सरकार ने 1856 में विधवा विवाह को वैध घोषित कर दिया। 
  डी. के. कर्वे और वीरेसालिंगम पंटुलु ने महिला उत्थान के लिये महत्त्वपूर्ण योगदान दिये हैं। कर्वे ने 1899 में पुणे में विधवा आश्रम और 1906 में मुंबई में भारतीय स्त्री विश्वविद्यालय की स्थापना की।
  बाल-विवाह को नियंत्रित करने के लिये बी.एम. मालाबारी के प्रयत्नों से 1891 में सम्मति आयु अधिनियम और 1930 में शारदा अधिनियम पारित किया गया। साथ ही सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले ने भी महिलाओं के उत्थान के लिये महत्त्वपूर्ण कार्य किये।
  ब्रिटिश अधिकारियों में विलियम बेंटिक का योगदान तो था ही, साथ ही चार्ल्स वुड और इसाई मिशनरियों ने भी स्त्री शिक्षा के लिये सिफारिशें की। इसके अतिरिक्त 1919 के सुधारों में भी महिलाओं के लिये सीमित मताधिकार की सिफारिश की गई।
  किंतु महिला उत्थान के उपर्युक्त प्रयासों के सीमित परिणाम रहे। जिसे निम्न बिंदुओं के माध्यम से देखा जा सकता है-
  इन सुधारों के परिणाम उच्च-मध्यम वर्ग तक ही सीमित रहे और ग्रामीण क्षेत्रों में इन सुधारों की अनुगूंज नहीं सुनाई पड़ी।
  नेतृत्व के दृष्टिकोण से भी इनमें महिलाओं की भूमिका का अभाव दिखा, जिसे सुधारवादी आंदोलन की सीमा ही कहा जा सकता है।
  भारतीय सामंतवादी ढाँचे ने इन सुधारों को नकार दिया। साथ ही सुधारवादियों को रुढ़िवादियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा।
  औपनिवेशिक सत्ता द्वारा भी रुढ़िवादी तत्त्वों को संरक्षण प्रदान कर सुधार की प्रक्रिया को बाधित किया गया। 
  यद्यपि इन सुधारों के अपेक्षित परिणाम समाज को नहीं मिल सके फिर भी ये तत्कालीन भारतीय परिस्थितियों के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण थे, जिनकी सार्थकता निर्विवाद है।

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