GS Paper-3 Disaster Management (आपदा प्रबंधन) Part-1 (Q-3)

GS PAPER-3 (आपदा प्रबंधन) Q-3
 
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Q.3 - प्रकृति तथा संस्कृति के मध्य सामंजस्य प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।उपर्युक्त कथन के संदर्भ में आपदा प्रभावी क्षेत्रों में प्रकृति अनुकूल भवन निर्माण की आवश्यकता को विश्लेषित कीजिये। (200 शब्द)
 
उत्तर :
  आधुनिक वैज्ञानिक युग के दौरान प्रकृति संस्कृति के मानवीय सहचर्य सोच के मध्य दूरी बढ़ती जा रही है। वर्तमान में आधुनिक विज्ञान को ही विकास का प्रतीक मान लिया गया है तथा प्रकृति संस्कृति के ज्ञान को अनावश्यक मानकर ठुकरा दिया गया है। ध्यातव्य है कि वैज्ञानिक विकास उससे होने वाली प्रगति को नकारा नहीं जा सकता लेकिन पारंपरिक ज्ञान प्रकृति के साथ सामंजस्य को नज़रअंदाज़ करना भी मानव अस्तित्व के लिये उचित नहीं है। वर्तमान में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं ने जान-माल की क्षति को बढ़ाने का कार्य किया है क्योंकि मनुष्य ने प्रकृति प्राचीन संस्कृति के संयोजन के स्थान पर अंधाधुंध विकास को अनिवार्य मान लिया है। इसी संदर्भ में राहत से बचाव अच्छाकी रणनीति का पालन करते हुए प्रकृति अनुकूल भवन निर्माण की कला का पालन अपरिहार्य हो गया है।
  प्राचीन काल से ही मानव ने अपने पारंपरिक ज्ञान के माध्यम से प्रकृति के संरक्षण के साथ ही संस्कृति के विकास को भी समृद्ध किया है। मनुष्य ने अपनी हज़ारों साल की विकास यात्रा के दौरान किसी विशेष क्षेत्र की जलवायु का अध्ययन कर भवन निर्माण के कार्य को संपन्न किया। जिस तरह प्रकृति ने किसी विशेष क्षेत्र के लिये विशेष वनस्पतियों को विकसित किया उसी प्रकार मनुष्य ने भी प्रकृति के साथ साहचर्य स्थापित कर स्थापत्य को विकसित किया। उदाहरण के लिये हिमाचल जैसे बर्फीले क्षेत्रों में लकड़ी से ढलवाँ छत वाले मकान बनाए गए तो पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में बांस काठ का प्रयोग कर घरों का निर्माण किया गया। इसी प्रकार रेगिस्तानी इलाकों में धूल भरी आंधियो से बचने हेतु खास प्रकार के घर बनाए गए। साथ ही, गर्मियों से राहत दिलाने हेतु राजस्थान की हवेलियाँ आज भी शीतलता प्रदान करने का सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
  लेकिन वर्तमान में मनुष्य ने भौतिकवादी परिवेश में अपने पारंपरिक ज्ञान को पीछे छोड़ते हुए सभी प्राकृतिक परिवेश में कंक्रीट के जंगलों को खड़ा कर दिया है। सीमेंट लोहे के सरिये से बने घर आज हमारी संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़ गए हैं। भवन निर्माण की इस अंधाधुंध दौड़ ने अपनी वास्तविक विभीषिका को प्राकृतिक आपदा के दौरान प्रदर्शित किया। जब उत्तराखंड में केदारनाथ त्रासदी ने अपना कहर बरपाया था उस समय सीमेंट कंक्रीट से बने हुए महलनुमा घर देखते-ही-देखते धराशायी हो गए तथा प्रकृति-संस्कृति के गठजोड़ की बढ़ती दूरी ने मनुष्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया।
  आधुनिकीकरण के युग में प्रकृति संस्कृति के मध्य बढ़ते असंतुलन को दूर करने तथा सामंजस्य की स्थापना करने हेतु हरित भवन जैसी अवधारणा का प्रयोग किया जा रहा है। हरित भवन ऐसे भवन होते हैं जो आपदा संभावित क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए डिज़ाइन किये जाते हैं। साथ ही ऊर्जा सक्षमता, जल सक्षमता तथा अपशिष्ट निपटान प्रणाली से युक्त होते हैं, जिसके फलस्वरूप पर्यावरण संरक्षण तथा प्रकृति के साथ संतुलन बना पाना संभव होता है।
 
निष्कर्ष:
कहा जा सकता है कि प्रकृति संस्कृति के बेहतर सामंजस्य के लिये पारंपरिक आधुनिक ज्ञान का संतुलन होना अति आवश्यक है। इस संतुलन के अंतर्गत यह ध्यान रखना होगा कि जब भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की सीमा प्रकट होगी, वहाँ पारंपरिक ज्ञान नज़रिया ही आपदा प्रबंधन में सहायक होगा।

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