GS Paper-1 Indian Society (भारतीय समाज) Part-1 (Q-4)

GS PAPER-1 (भारतीय समाज) Q-4
 
GS Paper-1 Indian Society (भारतीय समाज)

Q.4- क्षेत्रवाद के बढ़ते ज्वार के पीछे निहित कारकों को सविस्तार स्पष्ट कीजिये। क्या क्षेत्रवाद राष्ट्रवाद का विरोधी है? (250 शब्द)
उत्तर :
  किसी राज्य अथवा क्षेत्र पर सांस्कृतिक वर्चस्व भेदभाव मूलक व्यवहार क्षेत्रीयतावाद को उत्पन्न करने में प्रमुख भूमिका निभाता है। वास्तव में जब एक राज्य अथवा क्षेत्र के हितों को पूरे देश अथवा दूसरे क्षेत्रों या राज्यों के विरुद्ध पेश करने की कोशिश की जाती है तो क्षेत्रवाद का जन्म होता है।
  भारत में क्षेत्रीयतावाद की समस्या आज़ादी के बाद से ही विद्यमान रही है जहाँ भाषा, संस्कृति भौगोलिक आधारों पर टकराहट की वारदातें होती रही हैं। इस संदर्भ में डीएमके द्वारा चलाया गया आंदोलन 1950 के दशक में ही धरती का बेटा सिद्धांतउल्लेखनीय हैं। इस संबंध में सरकारों ने कुछ उल्लेखनीय प्रयासों द्वारा समाधान करने की कोशिश की, जिनमें भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन महत्त्वपूर्ण है। लेकिन अभी भी किसी--किसी मुद्दे को लेकर राज्यों क्षेत्रों के बीच विवाद का महौल निर्मित हो जाता है।

क्षेत्रीयतावाद के लिये ज़िम्मेदार कारकों को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है-
  राज्यों क्षेत्रों के बीच आर्थिक असमानता क्षेत्रीयतावाद की भावना को प्रबल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालाँकि इस संदर्भ में सरकार द्वारा आज़ादी के बाद कई स्तरों पर प्रयास किये गए जिनमें पंचवर्षीय योजना वित्त आयोग का गठन महत्त्वपूर्ण हैं। इसके वाबजूद राज्यों के मध्य आर्थिक असमानता की खाई कम नहीं हुई है। परिणामस्वरूप पिछड़े क्षेत्रों में असंतोष की भावना बलवती हुई है।
  राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र की असफलता भी क्षेत्रीयतावाद को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाती है। उदाहरणस्वरूप भ्रष्टाचार का उच्च स्तर, कमज़ोर प्रशासन तथा गिरती कानून व्यवस्था की बारंबारता इसे उत्तेजित करने का कार्य करती है।
  भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधता को भी क्षेत्रीयतावाद की भावना को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में देखा जा सकता है।
  क्षेत्रीयतावाद की भावना को उत्पन्न करने में पलायनवादी प्रवृत्ति की भी भूमिका रही है। प्रवासी बेहतर रोज़गार शिक्षा के लिये दूसरे राज्य की ओर पलायन करते हैं जिसको लेकर स्थानीय समुदाय खुद को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और उन्हें अपने संसाधनों पर दबाव के रूप में देखते हैं।
  उपरोक्त कारणों की वजह से क्षेत्रीयतावाद की भावना में बढ़ोतरी होने लगती है। परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में आर्थिक, राजनीतिक मनोवैज्ञानिक संघर्ष बढ़ता चला जाता है। इससे देश की एकता, अखंडता के लिये खतरा उत्पन्न होने के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण और विकास में भी बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। विकास की असमान रफ्तार के कारण कई बार क्षेत्रों के बीच तनाव का माहौल निर्मित हो जाता है। परिणामस्वरूप अलग राज्य की मांग स्वायत्त क्षेत्र की स्थापना को लेकर आंदोलन इत्यादि को माध्यम के रूप मे चुना जाता है। हालाँकि ऐसे मामलों में सरकारों की उपेक्षा की भावना नगण्य होती है। इस संदर्भ में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश इत्यादि का उदाहरण दिया जा सकता है। इसके अलावा भी कई ऐसे क्षेत्र हैं, जैसे- गोरखालैंड, मिथिलांचल इत्यादि की एक अलग राज्य के रूप में मांग की जाती रही है।

  उपरोक्त के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि क्षेत्रवाद राष्ट्रवाद के अनुकूल नहीं है परंतु भारत के नीति निर्माताओं ने भाषा, धर्म और असमान विकास के आधार पर क्षेत्रवाद की बलवती होती भावना पर अपने सूझबूझ से अंकुश लगाकर क्षेत्रवाद को कभी भी राष्ट्रवाद का विरोधी नहीं बनने दिया।

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