GS Paper-1 Geography (भूगोल) Part-1 (Q-10)

GS PAPER-1 (भूगोल) Q-10
 
GS Paper-1 Geography (भूगोल)

Q.10 - जलवर्षा के लिये वायु का संतृप्त होकर संघनित होना आवश्यक है एवं इसके लिये वायु का ऊपर उठना ज़रूरी होता है जो विभिन्न कारकों के कारण संभव होता है। इन्हीं कारणों के परिप्रेक्ष्य में संवहनीय, पर्वतीय और चक्रवातीय जलवर्षा को विस्तारपूर्वक समझाएँ।
 
उत्तर :
भूमिका:
ज्ञातव्य है कि ऊपर उठती हुई वायु ठंडी होकर संतृप्त होती है एवं ओसांक पर पहुँचने के बाद संघनन की व्रिया प्रारंभ होती है। जलवर्षा के लिये उष्णार्द्र वायु एवं वायुमंडल में आर्द्रताग्राही नाभिक का होना आवश्यक है। परंतु वर्षा होने के लिये वायु का ऊपर उठना अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

विषय-वस्तु
वायु तीन रूपों में ऊपर उठती है- धरातल के अधिक गर्म होने पर वायु का हल्का होकर संवहन धारा के रूप में ऊपर उठना, पर्वत के सहारे वायु का ऊपर उठना और चव्रवातों में वाताग्र के सहारे गर्म वायु का ऊपर उठना।

हवा के ऊपर उठने में विभिन्न कारकों का योगदान होता है। सबसे प्रभावशाली कारक के आधार पर वर्षा को तीन प्रकारों में विभक्त किया जाता है।
 
1. संवहनीय वर्षा: दिन में अत्यधिक ऊष्मा के कारण धरातल के गर्म होने से वायु गर्म होकर फैलती है एवं हल्की होकर ऊपर उठती है। रूद्धोष्म प्रव्रियाओं द्वारा वायु ठंडी होने लगती है और इसका तापमान ओसांक से नीचे गिर जाता है, जिससे बादलों का निर्माण होता है जो कपासी वर्षा-मेघ कहलाते हैं और भारी वर्षा कराते हैं। सामान्यत: इस प्रकार की वर्षा विषुवतीय प्रदेशों में होती है।
 
2. पर्वतीय वर्षा: उष्ण एव आर्द्र पवनों के मार्ग में जब पर्वत आते हैं तो ये पवनें ढाल के सहारे ऊपर उठने लगती हैं और वायु की सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ने लगती है। संतृप्त होने के उपरांत संघनन की प्रव्रिया आरंभ हो जाती है और बादलों का निर्माण होता है जिससे वर्षा प्रारंभ हो जाती है।
पर्वत के जिस ढाल पर हवा टकराती है और वर्षा होती है उसे पवनमुखी ढालकहते हैं एवं पर्वत के जिस ढाल के सहारे हवा नीचे उतरती है उसे पवन विमुखी ढालकहते हैं। इस ढाल पर वर्षा नहीं हो पाती अत: इसे वृष्टि छाया प्रदेशकहते हैं। वर्षा ऋतु में पश्चिमी घाट, हिमालय पर्वत के दक्षिणी ढाल और भारत के मैदानी भाग में होने वाली वर्षा, पर्वतीय वर्षा के अच्छे उदाहरण हैं।
 
3. चव्रवातीय वर्षा: चव्रवात के गुजरने के साथ जब दो विपरीत स्वभाव वाली हवाएँ विपरीत दिशाओं से आकर मिलती हैं तो वाताग्र का निर्माण होता है। इस वाताग्र के सहारे गर्म हवाएँ, ठंडी भारी वायु के ऊपर चढ़ती है जिससे चव्रवातीय वर्षा होती है। इस तरह का चव्रवातीय वाताग्र प्राय: शीतोष्ण कटिबंधों में निर्मित होता है। यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका में शीतकाल में होने वाली वर्षा चव्रवातीय वर्षा का ही उदाहरण है। भारत के उत्तरी भागों में भी शीतकाल में चव्रवातीय वर्षा होती है।

निष्कर्ष:
         अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-


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