→ समानता के अभाव में न्याय सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिये ही संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में एक समान नागरिक संहिता की स्थापना का निर्देशक तत्त्व स्थापित किया था। समान नागरिक संहिता का अर्थ है, देश के नागरिकों के सामाजिक संबंध यथा- विवाह, विवाह विच्छेद, संपत्ति हस्तांतरण आदि एक ही कानून से शासित हों न कि भिन्न-भिन्न व्यक्तिगत कानूनों से, जैसे- मुस्लिम पर्सनल लॉ, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम आदि।
→ भारत में समान नागरिक संहिता की स्थापना के लिये नियमित समयांतरालों में विभिन्न नागरिक समुदायों और सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार पर दबाव बनाया कि देश में एक समान सिविल संहिता लागू की जाए जिससे संविधान में उल्लिखित सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके। यद्यपि शाहबानो केस में समान नागरिक संहिता के निर्देशक तत्व की अवहेलना करते हुए संसद ने कानून बनाया।
→ इस संदर्भ में हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को मूल अधिकारों के विरुद्ध माना और सरकार को कानून बनाने का निर्देश दिया। इस ऐतिहासिक फैसले को देश में समान नागरिक संहिता की स्थापना के पहले पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है। क्योंकि इससे देश में व्यक्तिगत कानूनों की संवैधानिकता की जाँच का मार्ग प्रशस्त होगा, फलस्वरूप समान नागरिक संहिता के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकेगा। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला इस दिशा में महत्त्वपूर्ण है, तथापि अभी अनेक ऐसी बाधाएँ हैं, जिन्हें पार करना शेष है।
इन्हें निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है :
→ सभी राजनीतिक दलों में सहमति का अभाव।
→ विभिन्न धार्मिक समुदायों को आश्वस्त करने में असफलता कि यह उनके धार्मिक अधिकारों का हनन नहीं करेगा।
→ संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों के संरक्षण का मूल अधिकार प्रदान किया गया है। विरोधियों का तर्क है कि समान नागरिक संहिता उनके इस मूल अधिकार का उल्लंघन करेगी।
→ अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा समान नागरिक संहिता को बहुसंख्यकों के अधिनायकत्व के रूप में भी देखा जाता है।
→ समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिये जो भी सत्तारूढ़ दल प्रयास करता है, विरोधी दल इसे सांप्रदायिक रंग देकर राजनीतिक लाभ प्राप्त करने को तत्पर रहते हैं।
→ उपर्युक्त बाधाओं को दूर करके देश में एक समान नागरिक संहिता की स्थापना की जा सकती है। इसके अतिरिक्त सामाजिक सुधारकों को भी साथ लिया जा सकता है। विभिन्न सामाजिक विषयों, जैसे- विवाह, तलाक या संपत्ति का अधिकार आदि को विभिन्न चरणों में समान नागरिक संहिता के दायरे में लाया जा सकता है। इस संदर्भ में गोवा की नागरिक संहिता समस्त राष्ट्र के समक्ष अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कर सकती है।
निष्कर्ष:
यह कहा जा सकता है कि तीन तलाक के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने समान नागरिक संहिता की स्थापना हेतु उत्प्रेरक का कार्य किया है, तथापि अभी सम्पूर्ण उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये और अधिक प्रयास करने होंगे। सरकार के साथ-साथ नागरिक समुदायों को भी मिलकर कार्य करना होगा।