हिन्दी साहित्य का इतिहास लगभग 1000 वर्ष पुराना है। विचारों की प्रधानता के आधार पर इसे चार काल-खंडों में विभाजित किया गया है, यथा- आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल एवं आधुनिक काल। साहित्य समाज का दर्पण होता है तथा अपने समकालीन रीतियों और मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है।
भक्तिकाल से रीतिकाल की ओर प्रस्थान का समयकाल न केवल साहित्य का संक्रमण काल था बल्कि समाज का भी संक्रमण काल था। नीतियों, मूल्यों, अपेक्षाओं में परिवर्तन का दौर जारी था जो कि इस काल के साहित्य में भी परिलक्षित होता है।
भक्तिकालीन साहित्य के मूल तत्त्वः
→ साहित्य में एकेश्वरवाद को प्रोत्साहन।
→ सामाजिक बुराइयों, यथा- अस्पृश्यता, जातिवाद, कर्मकांड इत्यादि पर प्रहार।
→ ईश्वर प्रेम और व्यक्तिगत सात्विक जीवन पर विशेष बल (चरित्र निर्माण)।
→ भाषायी विविधता।साहित्य के केंद्रीय विषयवस्तु के रूप में सामान्य जन।
रीतिकालीन साहित्य के मूल तत्त्वः
→ शृंगार रस की प्रधानता।
→ राजाश्रय का प्रभाव - चमत्कारपूर्ण व्यंजना।
→ साहित्य का जन-विमुख होना।
→ नर-नारी प्रेम और नारी के मांसल सौंदर्य की मार्मिक व्यंजना।
→ मुख्यतः वज्रभाषा का प्रयोग।
→ ऐहलौकिकता एवं भोगवाद की झलक।
18वीं शताब्दी में केंद्रीय सत्ता के पतन के कारण क्षेत्रीय शासकों की संख्या में वृद्धि हुई तथा राजाश्रय प्राप्त कवियों की संख्या में भी वृद्धि हुई, ये कवि केवल महलों के भोग-विलास की काव्य रचना कर सकते थे। यह दौर आर्थिक और नैतिक पतन का भी था, समाज में सात्विकता और कर्मवाद का स्थान भोगवाद एवं भाग्यवाद ने ले लिया था। भक्तियुग का आदर्शवाद जब चरम पर पहुँच गया था तो उसका पतन होना अवश्यंभावी था। स्त्री की स्थिति और भी दयनीय होती जा रही थी तथा उसे केवल भोग की वस्तु समझा जा रहा था। ऐसी दशा में साहित्य का स्तर गिरना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।
निष्कर्ष:
कहा जा सकता है कि उक्त काल में हो रहे परिवर्तन तत्कालीन सामाजिक चित्तवृत्तियों की ही झलक प्रस्तुत कर रहे थे।