→ कला मानव जीवन की रचनात्मक अभिव्यक्ति का वह पक्ष है, जो न केवल व्यष्टिगत बल्कि समष्टिगत स्तर पर भी जीवंतता को भावविभोर कर देती है। ‘मंचन कला’इसी अभिव्यक्ति का एक पक्ष है। इसमें मानव अभिनय, संवाद, नृत्य, संगीत आदि के साथ अपनी संपूर्ण रचनात्मक विधा को अभिव्यक्त करता हैं। ‘मंचन कला’ अपनी विषय-वस्तु समाज तथा लोक व्यवहारों से प्राप्त करता है। यह प्रायः बिखरी हुई और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप अपना स्वरूप विकसित करती है।
→ भारत के विभिन्न स्थानों पर तीज-त्योहार, मेले, अनुष्ठान, पूजा-अर्चना आदि आयोजित होते हैं, जहाँ मंचन कला का प्रस्तुतीकरण होता है। इसीलिये इसमें गहरी सामाजिकता के साथ वैयक्तिकता भी होती है। और यही कारण है कि यह सांस्कृतिक विरासत की अक्षुण्णता को बनाए रखने के साथ मानव के जीवन मूल्यों को मस्तिष्क से कभी ओझल नहीं होने देती।
→ भारत में पारंपरिक मंचन कलाओं ने समय के साथ स्वयं को विकसित भी किया है। ये अब परंपरागत धार्मिक आख्यानों के साथ-साथ आधुनिक नाटक, साहित्य आदि से भी अपनी विषय-वस्तु ग्रहण करने लगे हैं। अब ये रचनात्मकता को भी अभिव्यक्त करने लगे हैं। आधुनिक ‘मंचन कलाएँ’केवल संज्ञानात्मक और कलात्मक संतुष्टि के लिये नहीं बल्कि व्यावसायिक उद्देश्यों के रूप में भी प्रस्तुत किये जाने लगे हैं।
→ वर्तमान में वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने भी एक ऐसी आभासी दुनिया का निर्माण किया है, जो मानव को केवल मनोरंजन तक ही सीमित कर रही है, उसके रचनात्मक पक्षों को सुषुप्तावस्था में धकेला जा रहा है। आज व्यक्ति घर बैठे ही टी.वी. या अपने कंप्यूटर स्क्रीन पर फिल्में, धारावाहिक आदि देखकर संतुष्ट हो रहा है।
→ आज मंचन कलाएँ कुछ बड़े शहरों तक ही सीमित रह गई हैं। छोटे शहरों में मंचन कलाकारों को दर्शक ही नहीं मिलते। बड़े शहरों में भी मंचन कलाएँ व्यावसायिक उद्देश्यों तक ही सीमित रह गई हैं।
→ यद्यपि वैश्वीकरण ने पारंपरिक मंचन कला को हानि पहुँचाई है, तथापि यह त्योहारों, उत्सवों आदि में अब भी अपनी जीवंतता को बनाए रखे हुए हैं। भारत सकार का संस्कृति मंत्रालय और विभिन्न राज्य सरकारों के विभाग भारतीय मंचन कला के पुनरुद्धार और उसकी अक्षुण्णता को बनाए रखने के लिये निरंतर प्रयासरत हैं।