GS Paper-1 Indian Culture (संस्कृति) Part-1 (Q.26)

GS PAPER-1 (संस्कृतिQ-26
 
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Q.26 - आधुनिक भारतीय मूर्तिकला के विकास का सविस्तार वर्णन कीजिये।
उत्तर :
  भारत में कला के क्षेत्र में 1906 . तक दो ही प्रवृत्तियाँ देखी जा रही थीं। पहली के अंतर्गत विदेशी कलाकार यूरोपीय शैली की मूर्तिकला का प्रयोग कर रहे थे और पारंपरिक भारतीय कलाकार भिखारिन, पनिहारिन जैसे सामान्य विषयों पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे। दूसरी में, कुछ भारतीय कलाकार जैसे रोहितकांत नाग, फणींद्रनाथ बसु, हिरणमय राय चौधरी एवं प्रमथनाथ मलिक आदि विदेशी कलाकारों से प्रेरणा ले रहे थे। इस समय तक चित्रकला के क्षेत्र में तो अभिनव प्रयोग हो चुके थे परंतु मूर्तिकला के क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई थी।
  ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में देवीप्रसाद राय चौधरी (1899-1975) ने पहली बार यूरोपीय शैली से थोड़ा हटकर मूर्तिकला को भारतीय स्पर्श देने की कोशिश की। वे पहले आधुनिक मूर्तिकार थे जिन्होंने कांस्य माध्यम में काम किया। उनकी आदमकद मूर्तियों में गति, ऊर्जा भाव का अद्भुत समन्वय है। बिहार में पटना सचिवालय के सामने बना शहीद स्मारक इनके कला-कौशल की देन है। इन्हें 1958 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। देवीप्रसाद राय चौधरी के बाद रामकिंकर बैज ने मूर्तिकला में नए आयाम जोड़कर आधुनिक भारतीय मूर्तिकला को सुदृढ़  आधार प्रदान किया।
  कई कला विशेषज्ञ रामकिंकर बैज से भारत में आधुनिक मूर्तिकला की शुरुआत मानते हैं। उन्होंने मूर्तिकला में आधुनिक कला की सभी प्रवृत्तियों, जैसे यथार्थवाद, घनवाद से लेकर अतियथार्थवाद आदि को सहज रूप में अपनाया तथा मूर्तियों के निर्माण के लिये परंपरागत सामग्रियों को छोड़कर सीमेंट से मूर्तियाँ बनाईं। देवीप्रसाद राय चौधरी और रामकिंकर बैज के शिष्यों में धनराज भगत, पी. वी. जानकीराम, रजनीकांत पांचाल, . एम. डाबरीवाला, राघव कनौरिया जैसे कुछ मूर्तिकारों ने आधुनिक भारतीय शैली की मूर्तिकला को और आगे बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इन कलाकारों ने अपनी स्वयं की शैली तो विकसित की ही साथ ही, मूर्तिशिल्प के परंपरागत आधार तत्त्वों एवं दर्शन में पश्चिम की कला शैली तत्त्वों का समावेश कर भारतीय मूर्तिकला को विविधता प्रदान करने के साथ-साथ आधुनिक प्रवृत्तियों से भी समृद्ध किया।
  बाद में छठे और सातवें दशक के क्रियाशील मूर्तिकारों ने मूर्तिशिल्प में नए-नए आयाम जोड़े और नितांत भारतीय शैली का निर्माण किया जो पश्चिमी शैली से बिलकुल अलग है और जिसमें अंतर्मन की भावनाओं के प्रकटीकरण सहित मूर्तिकला के अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमानों के साथ कदम-से-कदम मिलकर चलने की प्रवृत्ति विद्यमान है।

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