→ जाति-आधारित भेदभाव अभी भी स्वतंत्र भारत के राजनीतिक परिदृश्य को बाधा पहुँचा रहा है। अभी भी किसी व्यक्ति की जाति उसके सामाजिक संबंध, उसे प्राप्त अवसरों, उसके उत्पीड़न, उसके प्रति व्यवहृत असमानता का आधार बनी हुई है साथ ही, स्वतंत्र भारत में जिस न्याय की कल्पना की गई थी, वह अभी तक साकार नहीं हो सकी है।
→ स्वतंत्रता-पूर्व भारत में ऐसे कई आंदोलन सक्रिय थे जो जातिगत व्यवस्था पर आधारित थे लेकिन प्रतीत होता है कि स्वतंत्र भारत में इस संघर्ष और आंदोलन का भार सिर्फ दलितों के कंधों पर छोड़ दिया गया है और शेष समाज इस रुग्णता को दूर करने तथा इस संघर्ष में भागीदारी के प्रति उदासीन बना रहा। देश की राजनीतिक व्यवस्था देशवासियों के लिये न्याय सुनिश्चित करा पाने में विफल साबित हो रही है।
→ जनवरी 2016 में रोहित वेमुला की आत्महत्या, जुलाई 2016 में ऊना में दलितों पर भीड़ का हमला और 2018 के आरंभ में महाराष्ट्र में ऐतिहासिक भीमा-कोरेगाँव युद्ध की वर्षगाँठ के आयोजन पर हुआ हमला, हमारे राजनीतिक निकाय के दोषों को ही प्रकट करते हैं। आज़ादी के 70 वर्षों के बाद भी वंचित समुदाय न केवल आर्थिक विपन्नता के शिकार हैं बल्कि सामाजिक रूप से भी हाशिये पर हैं। राजनीति में भी उनकी भागीदारी महज़ वोट बैंक तक सीमित रह गई है। वे रोज़मर्रा के जीवन में अपमानित, उपेक्षित और तिरस्कार के शिकार हैं। इसका उदाहरण पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम पर दिये गए फैसले के रूप में देखा जा सकता है जिसके विरोध में उत्तर भारत के कई हिस्सों में दलितों का प्रतिरोध जारी रहा। उनका आरोप था कि न्यायालय के फैसले से इस अधिनियम को कमज़ोर बनाया गया है। मीडिया की सुर्खियों से देश को पता चला कि कितने लोग मारे गए और कितने हताहत हुए, आगजनी की कितनी घटनाएँ हुईं, कितनी ट्रेनें रोकी गईं, दुकानों को कैसे बंद कराया गया और कैसे केंद्र को कुछ राज्यों में केंद्रीय बलों की नियुक्ति करनी पड़ी लेकिन दुर्भाग्य से इनमें भी अधिकांश रिपोर्ट निराशाजनक, आत्माहीन और सपाट ही दिखीं। दलितों के इस आसामान्य आक्रोश व प्रतिरोध को भी उन्होंने यूँ देखा, जैसे कोई विशेषाधिकार प्राप्त समूह करों को कम कराने के लिये आंदोलन कर रहा हो और वहाँ हिंसा हो गई हो।
→ इससे भी बदतर स्थिति यह कि दलित खुद अपने नेतृत्वकर्त्ताओं द्वारा ही छले जा रहे हैं। यदि दलितों के नेतृत्व ने दलित आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये प्राप्त प्रतिनिधित्व को ईमानदारी और गंभीरता से निभाया होता तो आज दलितों की स्थिति ऐसी नहीं होती, जिसे हम अर्द्ध-मानवीय जीवन स्थिति कह सकते हैं।
→ यद्यपि वर्तमान की राजनीति (पॉलिटिक्स ऑफ प्रज़ेंस) पर केंद्रित सकारात्मक कार्रवाई नीतियों ने निश्चित रूप से ऐतिहासिक गलतियों की मरम्मत में योगदान किया है, किंतु इन नीतियों के लाभ का भी असमान प्रसार हुआ है और इनका लाभ टुकड़ों में प्राप्त हुआ है। उदाहरण के लिये, हम एक शिक्षित और पेशा योग्य दलित मध्य वर्ग का उभार देख सकते हैं। परंतु यह भी सच है कि दलित आंदोलन ने उस दुनिया के दरवाज़ों को खोलने में सफलता पाई है, जिसके दरवाज़े अब तक इन समुदायों के लिये बंद थे। कार्यकर्त्ताओं ने सामूहिक कार्रवाई के माध्यम से आवाज़ उठाने के अधिकार को हासिल कर लिया है और सार्वजनिक बहस को न केवल प्रभावित कर रहे हैं बल्कि उसे आकार भी दे रहे हैं।
→ वर्तमान में दलित अपना इतिहास और अपनी कथा खुद लिख रहे हैं। वे एक जीवंत साहित्यिक आंदोलन के माध्यम से मुख्यधारा के समाज द्वारा एक पूरे समुदाय को बहिष्कृत रखने को खारिज कर रहे हैं और बहिष्कृत किये जाने के इस अनुभव को खुलकर लिखा जा रहा है। वे मौजूदा साहित्यिक सम्मेलनों को चुनौती दे रहे हैं, साहित्यिक व काव्य सृजन का पुनर्लिपीकरण कर रहे हैं, भारत राष्ट्र के महत्त्वपूर्ण आख्यानों में दलित उपस्थिति को दर्ज कर रहे हैं और अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व स्वयं करते हुए आख्यानों को देखने के तरीके पर ज़ोरदार ढंग से हमला कर रहे हैं।