→ वर्तमान में अमेरिका-ईरान संबंध तनावपूर्ण दौर से गुज़र रहे हैं। ट्रंप प्रशासन ईरान पर लगातार प्रतिबंधों के माध्यम से नियंत्रण स्थापित करने की कोशिशों में लगा है। ऐसा लगता है कि अमेरिका की पश्चिम एशिया नीति की आधारशिला इज़राइल की सुरक्षा है और ईरान पर नियंत्रण इसी दृष्टिकोण का एक उप अंग है।
→ अमेरिका-ईरान संबंध हमेशा से ही उतार-चढ़ाव से परिपूर्ण रहे हैं। ट्रंप प्रशासन का पूर्ववर्ती ओबामा प्रशासन ईरान के नेतृत्व के प्रति अच्छे विचार रखता था जिस कारण वह राष्ट्रपति हसन रूहानी जैसे ईरानी नरमपंथियों से जुड़ा हुआ था। अतीत में भी ईरान और अमेरिका ने आपसी मैत्रीपूर्ण संबंध के कुछ प्रयास किये थे। बिल क्लिंटन के कार्यकाल के अंतिम दौर में भी ईरान से कुछ अमेरिकी प्रतिबंधों को हटा लिया गया था और दो दशकों से जारी शत्रुता की समाप्ति के लिये कदम उठाने का संकल्प लिया गया था।
→ 9/11 हमले के बाद अलकायदा और अफगानिस्तान के विरुद्ध अमेरिका के युद्ध में भी ईरान ने सहयोग की पेशकश की थी, लेकिन जॉर्ज डब्ल्यू बुश प्रशासन ने क्लिंटन-युग की नीति को उलट दिया और 9/11 हमले के बाद ईरान द्वारा दिखाई गई सदाशयता को भी भुला दिया। उन्होंने इराक और उत्तर कोरिया के साथ ईरान को रखकर उन्हें ‘बुराई की धुरी (एक्सिस ऑफ एविल)’ करार दिया। गौरतलब है कि दोनों देशों के बीच वर्तमान तनाव वृद्धि के लिये भी ईरान दोषी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र परमाणु निगरानीकर्त्ता ने पुष्टि की है कि ईरान परमाणु समझौते की शर्तों का पूरा अनुपालन कर रहा था। यूरोपीय संघ सहित इस समझौते के अन्य हस्ताक्षरकर्त्ता अभी भी इसके साथ बने हुए हैं, लेकिन ट्रंप ने इस समझौते को अमेरिकी इतिहास का सबसे खराब समझौता करार दिया और इस वर्ष मई में इससे बाहर निकलने की एकतरफा घोषणा कर दी।
→ वस्तुतः ट्रंप अपने तुरंत पूर्ववर्ती सरकार की उपलब्धियों को कम करने का पूर्वाग्रह रखते हैं और ईरान को अमेरिकी तंत्र की विदेश नीति के प्रिज़्म द्वारा देखते हैं। वे चाहते हैं कि अमेरिकी नीति पुनः उस ओर लौटे, जहाँ अमेरिका अपने पारंपरिक सहयोगियों इज़राइल और सुन्नी अरब विश्व को प्राथमिकता देता था। उनके विश्व दृष्टिकोण में ईरान पर नियंत्रण होना चाहिये उन्होंने ईरान के साथ परमाणु समझौते को इसलिये भंग नहीं किया कि समझौते की शर्तों पर पुनः वार्ता हो, बल्कि वे ईरान को उकसाना और अलग-थलग करना चाहते हैं।