लोकतांत्रिक मूल्यों से तात्पर्य स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय के आदर्शो से है, जिसकी शुरुआत प्राँसीसी क्रांति के गर्भ से मानी जाती है। ये मूल्य अपने वृहद परिप्रेक्ष्य में किसी देश एवं समाज की प्रगति के बेहतर मानक होते हैं जो उसे सर्वसमावेशी, न्यायिक एवं लोकतांत्रिक बनाते हैं।
इसी कारण भारतीय संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक मूल्यों को जीवन-दर्शन के रूप में स्थापित किया है, जिसकी झलक संविधान की प्रस्तावना में दिखती है और जिसे व्यापक रूप में संविधान के विभिन्न भागों में देखा जा सकता है, जैसे-
→ वंचित एवं पिछड़े समुदायों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिये सकारात्मक कार्रवाई का प्रावधान।
→ अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा के लिये उन्हें प्रदत्त मौलिक अधिकार।
→ सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार।
→ समय-समय पर चुनाव की व्यवस्था आदि।
→ यही कारण है कि आज़ादी के सत्तर सालों बाद भी हमारा लोकतंत्र जीवंत रूप से आगे बढ़ रहा है। जबकि कई पड़ोसी एवं अन्य लोकतांत्रिक देशों में तख्ता-पलट जैसी कार्रवाई देखने को मिली।
लोकतांत्रिक विश्वास एवं आस्था के बावजूद एक प्रमुख खामी के रूप में देश की राजनीतिक पार्टियों में लोकतांत्रिक मूल्यों का अभाव देखा जाता है। जैसे-
→ पार्टियों में वंशवाद एवं परिवाद का बढ़ता प्रचलन।
→ कुछ पार्टियों में किसी एक व्यक्ति का प्रभाव होना।
→ पार्टी पदाधिकारियों के चयन में विसंगतियाँ आदि।
इसके कारण निम्नलिखित समस्याएँ देखने को मिलती हैं:
→ पार्टी के निर्णयों में अपारदर्शिता।
→ पार्टी के चंदे का गलत प्रयोग एवं भ्रष्टाचार को बढ़ावा।
→ योग्य व्यक्तियों का राजनीति से विमुख होना आदि।
यद्यपि 1999 में विधि आयोग तथा बाद में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग एवं संविधान समीक्षा आयोग ने भी पार्टियों के अंदर आंतरिक लोकतंत्र की आवश्यकता पर बल दिया, परंतु दुर्भाग्य से पार्टियों के अंदर आंतरिक लोकतंत्र को सुनिश्चित करने वाला कोई कानून नहीं है।
वस्तुत: राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिये उपयुक्त संसाधनों की आवश्यकता है क्योंकि यह वित्तीय एवं चुनावी जवाबदेही को बढ़ावा देने, भ्रष्टाचार कम करने और पूरे देश की लोकतांत्रिक कार्य प्रणाली में सुधार करने में महत्त्वपूर्ण है।