पितृसत्ता इस मान्यता पर आधारित है कि पुरुष और स्त्री प्रकृति से भिन्न हैं और यही भिन्नता समाज में उनकी असमान स्थिति को न्यायोचित ठहराती है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की यह महत्त्वपूर्ण विशेषता होती है कि यह समाज के प्रत्येक सदस्य को एक समान न मानकर ऊँचा या नीचा मानती है। पितृसत्ता लोकतांत्रिक मूल्यों के सर्वथा विपरीत है।
पितृसत्ता के विरुद्ध नारीवाद के चरित्र को हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते हैं :-
→ नारीवाद स्त्री-पुरुष के जैविक विभेद और स्त्री-पुरुष के मध्य सामाजिक भूमिकाओं पर विभेद के बीच अंतर करने का आग्रह करता है।
→ जैविक भेद प्राकृतिक अथवा जन्मजात होता है जबकि लैंगिक भेद समाज जनित होता है। एक मनुष्य का जन्म नर या मादा के रूप में होता है, परंतु स्त्री या पुरुष को हम जिन सामाजिक भूमिकाओं में देखते हैं, उन्हें समाज गढ़ता है।
→ नारीवाद के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता का अधिकांश भाग प्रकृति ने नहीं, समाज ने पैदा किया है।
→ जहाँ पितृसत्ता पुरुष को नियंत्रक की भूमिका देती है, वहीं नारीवाद स्त्री-पुरुष की समानता पर आधारित है। नारीवाद, मातृसत्ता का द्योतक नहीं है।
→ नारीवाद, समाज की उस पदसोपानीयता को चुनौती देता है, जिसमें पुरुष विशेषाधिकार प्राप्त उच्च स्थान पर होता है और नारी निचले स्थान पर।
→ नारीवाद, संपत्ति के अधिकार के साथ-साथ तमाम सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक अधिकारों पर पुरुषों से श्रेष्ठता का नहीं वरन् पुरुषों के साथ बराबरी का दावा करता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि नारीवाद एक ऐसे समाज की स्थापना करने की चेष्टा करता है, जहाँ नारी-पुरुष के बीच किसी प्रकार के विभेद के स्थान पर संतुलन की स्थापना हो सके तथा नारी व पुरुष दोनों ही समान अधिकारों का इस्तेमाल कर सकें।