भारतीय समाज में विधवा के प्रति दृष्टिकोण का अंदाज़ा इस बात से स्वतः लग जाता है कि एक समय ऐसा था जब उसे जीने का अधिकार भी समाज द्वारा नहीं दिया गया था और उसे पति की चिता के साथ ही ‘सती’ होना पड़ता था। हालाँकि सती प्रथा जैसे बर्बर सामाजिक नियम को 1829 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया, लेकिन आज भी समाज के दृष्टिकोण में कोई खास बदलाव नहीं आया है। अब भी विधवा को एक अशुभ छाया माना जाता है और उसे किसी भी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों व विवाह जैसे अन्य कार्यक्रमों में प्रत्यक्ष भागीदारी से वंचित रखा जाता है। उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत के मुकाबले उत्तर भारत में विधवाओं को अधिक भेदभावपूर्ण व सीमित जीवन व्यतीत करना पड़ता है।
भारत में विधवा महिलाओं की समस्याएँ:
→ वह गरिमापूर्ण जीवन नहीं जी सकती हैं, क्योंकि उनका नारीत्व उनके पति की जीवन की रक्षा करने में असमर्थ रहा है। अतः उन्हें लांछित जीवन जीने को बाध्य किया जाता है।
→ गरीब और पिछड़े वर्ग की तुलना में अमीर व संभ्रांत परिवार की विधवाओं को ससुराल में अधिक क्रूर व्यवहार का सामना करना पड़ता है।
→ अपने पति स्वरूप संरक्षक के अभाव में उन्हें कई बार यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। साथ ही स्वयं व बच्चों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आर्थिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।
समाधान
→ यूँ तो विधवा पुनर्विवाह जैसे कानून को सन् 1856 में वैधता मिल गई थी लेकिन आज भी समाज द्वारा पूरी तरह से मान्यता नहीं दी गई है। अतः विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।
→ पति की संपत्ति में विधवा स्त्री की न्यूनतम गारंटी सुनिश्चित करना होगा।
→ मुख्य धारा से अलग-थलग रहने के कारण सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जा रही सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ भी सही रूप में उन तक नहीं पहुँच पाती हैं। अतः जन-जागरूकता के माध्यम से इन सेवाओं तक विधवाओं की पहुँच को सुनिश्चित किया जा सकता है।
→ विधवा-आश्रमों में हथकरघा, शिल्पकला के साथ- साथ गैर-कौशल कार्यों को बढ़ावा देकर उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाया जा सकता है।