→ यद्यपि बुद्ध और वैश्वीकरण कालखण्ड के परिप्रेक्ष्य में अलग-अलग हैं लेकिन बुद्ध की शिक्षाओं के अनेक तत्त्व, चाहे वे राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक हों, वैश्वीकरण के इस युग में भी प्रासंगिक दिखाई पड़ते हैं।
→ वैश्वीकरण का प्राथमिक उद्देश्य देश के भौतिक तथा आर्थिक क्षेत्रों के अवरोधों को हटाना है और अंतर- संबद्धता को बढ़ाना है। यह बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद (अंतर्निर्भरता का सिद्धांत) के संगत है। वैश्वीकरण में किसी देश के सिद्धांत, नीतियाँ एवं कार्य आपस में इस प्रकार जुड़े हुए रहते हैं कि एक देश दूसरे देश को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता।
→ बुद्ध ने प्रत्येक कट्टर प्रवृत्ति की निंदा की तथा सांस्कृतिक एवं राजनीतिक अवरोधों को तोड़ दिया। उन्होंने खुले विचारों वाले मध्यम मार्ग को अपनाया। आज वैश्विक स्तर पर बढ़ रहे अतिवादी विचारधाराओं में इसकी महत्ता दिखाई देती है।
→ वैश्वीकरण के इस युग में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों तथा विभिन्न सरकारों की नीतियों को प्रभावित कर रही हैं। ऐसा आरोप लगाया जाता है कि सरकार नीति-निर्माण में इन पूंजीपतियों को लोगों के कल्याण की तुलना में तरज़ीह देती है। बुद्ध के कर्त्तव्य जैसे- दान, उदारता, शील, उच्च नैतिक चरित्र आदि सरकार के लिये मार्गदर्शक का कार्य कर सकते हैं ताकि वे लोक कल्याण को वरीयता दे सकें।
→ वैश्वीकरण वस्तुओं के प्रति लालसा को प्रोत्साहन देता है और इसका मार्गदर्शक सिद्धांत कल्याण की जगह लाभ को वरीयता देता है क्योंकि वह नागरिकों को ग्राहकों के रूप में देखता है। यह व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों की ओर ले जाता है जहाँ दूसरों के कल्याण पर अपने स्वार्थों को प्राथमिकता दी जाती है। बुद्ध की शिक्षाएँ ऐसी विचारधारा पर रोक लगाती हैं। बुद्ध के मध्यममार्गी सिद्धांत वैश्वीकरण के गुणों को अपनाने तथ इसके दुर्गुणों को छोड़ने हेतु प्रेरित करता है।