भारतीय इतिहास में मध्यकालीन युग को प्रारंभ से ही संघर्षों का युग कहा जा सकता है। इस्लाम के आगमन के बाद देश की जनता तथा शासकों के लिये अनिवार्य था कि परस्पर सहयोग तथा समन्वय की भावना को महत्त्व दिया जाए। इसी विचारधारा के परिणाम स्वरूप सूफी तथा भक्ति आंदोलनों का उदय हुआ जिन्होंने कुप्रथाओं, आडंबरों तथा पृथकतावादी तत्वों का विरोध करते हुए पारस्परिक सहयोग का उपदेश दिया।
संतों तथा सूफियों के प्रयासों से जो भक्ति एवं सूफी आंदोलन आरंभ हुए उनसे सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में एक नवीन शक्ति एवं गतिशीलता का संचार हुआ। इन आंदोलनों के प्रमख प्रभाव निम्नवत हैं-
→ लोक भाषाओं में साहित्य रचना का आरंभ।
→ इस्लाम तथा हिंदू धर्म के परस्पर सहयोग से सहिष्णुता की भावना का विकास हुआ जिससे जातिगत बंधनों में शिथिलता आई और विचार तथा कर्म दोनों स्तरों पर समाज का उन्नयन हुआ।
→ इन्होंने जनमानस को न केवल ईश्वर के प्रति प्रेम से परिचित कराया अपितु धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक कलह से पिसती जनता को प्रेरित कर उसमें नवीन स्फूर्ति का संचार किया।
→ संतों ने अपने व्यक्तिगत जीवन एवं आचरण से सिद्ध कर दिया कि मानव अपने सत्कर्मों एवं प्रयत्नों से महान होता है चाहे वह किसी भी जाति अथवा कुल का हो।
→ उपर्युक्त विशेषताओं के बावजूद ये संत हिंदुओं एवं मुसलमानों के उच्च वर्गों को अपने साथ नहीं जोड़ पाए। इन संतों का दृष्टिकोण वस्तुतः मानवतावादी था। उन्होंने मानवीय भावनाओं के उदान्ततम पक्षों पर बल दिया। वे जाति प्रथा को खास कमज़ोर नहीं कर पाये फिर भी उन्होंने उसके दंश को कम अवश्य किया। समाज में महिलाओं के प्रति हो रहे भेदभाव को समाप्त करने के लिये विशेष प्रयासों का भी अभाव देखने को मिलता है किंतु इन सब के बावज़ूद मध्यकाल की संघर्षशील परिस्थितियों में इन सूफियों तथा संतों ने एक ऐसा सामान्य मंच तैयार कर दिया था जिस पर विभिन्न संप्रदायों और धर्मों के लोग एक हो सकते थे और एक-दूसरे को समझ सकते थे।