चालुक्य साम्राज्य की स्थापत्य कला के प्राचीनतम उदाहरण बौद्ध धर्म के हैं, जिनका विकास तीसरी ईसवी पूर्व से सातवीं ईसवी तक रहा। दक्कन की स्थापत्य कला के इतिहास में धर्म का पुनर्जागरण वास्तुकला के संरक्षक चालुक्यों के काल में हुआ। उन्होंने अपनी राजधानी वातापी को अनेक चट्टान, मंदिरों से अलंकृत किया, जिनमें से कुछ अब भी दक्कन में इस शैली के पुराने ब्राह्मण भवनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
चालुक्य काल में कला का विकास धीरे-धीरे हुआ। इस काल के प्रमुख केंद्र थे– ऐहोल, वातापी (बादामी), पट्टदकल और आलमपुर। ऐहोल में चालुक्यों के प्रारंभिक मंदिर प्राप्त होते हैं जिस कारण इसे मंदिरों का नगर कहा गया है। ऐहोल के बाद वातापी (बादामी) में पत्थरों को काटकर मंदिरों एवं गुफाओं का विकास हुआ। चालुक्य वंश के अंतिम शासकों ने कला के लिये पट्टदकल एवं आलमपुर को चुना। इसकी अन्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
→ यह नागर और द्रविड़ शैली की विशेषताओं से युक्त बेसर शैली है।
→ यहाँ के मंदिरों में चट्टानों को काटकर संयुक्त कक्ष और विशेष ढाँचे वाले मंदिरों का निर्माण देखने को मिलता है।
→ ऐहोल में 70 से अधिक मंदिर हैं जिनमें रविकीर्ति द्वारा बनवाया गया मेंगुती जैन मंदिर तथा लाढ़खाँ का सूर्य मंदिर प्रसिद्ध है।
→ बादामी के गुफा मंदिरों में खंभों वाला बरामदा, मेहराबयुक्त कक्ष, छोटा गर्भगृह और उनकी गहराई प्रमुख है।
→ बादामी में मिली चार गुफाएँ: शिव, विष्णु, विष्णु अवतार व जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ से संबंधित हैं।
→ बादामी के भूतनाथ, मल्लिकार्जुन और येल्लमा के मंदिरों के स्थापत्य को सराहना मिली है।
→ पट्टदकल के विरुपाक्ष मंदिर का स्थापत्य अति विशिष्ट है। इसके अलावा यहाँ के मंदिरों में संगमेश्वर, पापनाथ आदि प्रमुख हैं।
→ पट्टदकल के मंदिरों में चालुक्यकालीन स्थापत्य संपूर्ण रूप में विद्यमान है। इसलिये इसे 1987 में यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया।