सन् 1905 में बंग-भंग के विरोध में शुरू हुए स्वदेशी आंदोलन ने महिलाओं सहित व्यापक जनभागीदारी, निष्क्रिय और उग्रवादी प्रतिरोध के माध्यम से भारतीयों ने जिस दृष्टिकोण का परिचय दिया, वह अंग्रेज़ों के लिये अप्रत्याशित था। साथ ही नरमपंथी सुधारवादियों द्वारा भी दबाव बनाया जा रहा था। इन दोनों ही उद्देश्यों को साधने के लिये अंग्रेज़ों द्वारा सन् 1909 में भारतीय परिषद अधिनियम लाया गया।
→ भारतीय परिषद अधिनियम,1909 में केन्द्रीय विधान परिषद एवं प्रांतीय विधान परिषद में निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ाने का प्रावधान रखा गया। इसके पीछे अंग्रेज़ों की मंशा उग्रवादी प्रतिरोध का विरोध करने वाले नरमपंथियों को संतुष्ट करना था।
→ इस अधिनियम के माध्यम से विधायिकाओं के अधिकारों को विस्तृत किया गया, लेकिन यहाँ अंग्रेज़ आम लोगों का विश्वास हासिल करना चाहते थे ताकि उग्र राष्ट्रवाद को दबाया जा सके।
→ भारतीय परिषद अधिनियम,1909 के सामाजिक और राजनीतिक विभाजन के उद्देश्य से मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था शुरू की गई। अंग्रेज़ों ने इस कदम के द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाई जिससे कि ये लोग आज़ादी की लड़ाई से ही जुड़ न सके।
→ भारतीय परिषद अधिनियम,1909 का भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में दूरगामी प्रभाव पड़ा। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप भारत में सांप्रदायिक राजनीति की नींव पड़ी। नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच मतभेद काफी उभर गया। अतः कहा जा सकता है कि भारतीय परिषद अधिनियम,1909 के द्वारा अंग्रेजों का उद्देश्य स्वतंत्रता के लिये बनी एकता को बाधित करना था।