भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादियों द्वारा किये जा रहे प्रार्थना, प्रतिवेदन और लंदन यात्रा से जब कुछ ठोस हासिल नहीं हुआ, तब भारतीय जनमानस के असंतोष में वृद्धि हुई। भारतीय जनमानस के बढ़ते इस असंतोष की अभिव्यक्ति उग्रवादी चेतना के रूप में हुई।
उग्रवादी चेतना के उदय के कारण
→ आरंभिक राष्ट्रवादियों द्वारा की गई आर्थिक समीक्षा से ब्रिटिश का शोषक मूलक चेहरा उजागर हो गया अतः अब उनसे न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस तरह ब्रिटिश विरोधी भावना उग्र हुई।
→ 1892 के अधिनियम से भारतीयों को कुछ विशेष हासिल नहीं हुआ। अतः उन्हें निराशा हुई तो दूसरी तरफ लोकमान्य तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चला। फलतः जनता में आक्रोश बढ़ा।
→ 1896 से 1900 के बीच पड़े अकाल में लाखों लोग मारे गए और ब्रिटिश शासन उदासीन रहा।
→ 1896 में इथोपिया ने इटली को एवं 1905 में जापान ने रूस को पराजित किया तो इससे यूरोपीय अपराजिता का भ्रम टूट गया और भारतीय राष्ट्रवादियों के अंदर यह भावना पैदा हुई कि ब्रिटिशों का विरोध करके स्वराज प्राप्त किया जा सकता है।
→ कर्जन के सप्तवर्षीय शासन नें, भारतीय राजनीति को नई विचारधारा से युक्त कर दिया। 1899 के ‘कलकत्ता नगर निगम अधिनियम’ तथा 1904 के कानून के तहत ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ को सीमित करने से भारतीय राजनीतिक विचारधारा में उग्रता आई। वहीं 1905 में प्रशासनिक सुशासन के नाम पर बंगाल विभाजन ने भारतीय राष्ट्रवादियों को अंसतुष्ट किया।
→ भारतीय सामाजिक सुधार आंदोलनों ने भारतीयों के अंदर आत्मविश्वास पैदा कर उनमें भारत मुक्ति की भावना पैदा की।
→ उग्रवादी राजनीतिक विचारधारा ने राष्ट्रीय आंदोलन को आम जनता से जोड़ने का प्रयास किया। वस्तुतः विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी पर बल देने से राजनीतिक गतिविधियों में तीव्रता आई। उग्रवादियों की राजनीतिक संघर्ष की पद्धति जैसे- धरना, प्रदर्शन, बहिष्कार, असहयोग ने आंदोलन को लोकप्रिय बनाया और यही पद्वतियाँ आगे गांधीवादी आंदोलन में दिखाई देती हैं।