भारतीय न्यायिक व्यवस्था विश्व की पुरानी न्यायिक प्रणालियों में से एक है। शक्ति के पृथक्करण सिद्धांत के तहत भारतीय संविधान में एकीकृत एवं स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना का प्रावधान किया गया है।
भारतीय न्यायिक प्रणाली में अपने उल्लेखनीय कार्यों के बावजूद कुछ विसंगतियाँ विद्यमान हैं, जिसे निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:
→ न्यायिक बैकलाग और देरी: भारत में लगभग 3 करोड़ मामले लम्बित हैं। इसका कारण है- जनसंख्या के अनुपात में कम न्यायाधीशों को होना, न्यायाधीशों की नियुक्ति पर गतिरोध, पुलिस के पास साक्ष्यों का वैज्ञानिक ढंग से संग्रहण हेतु प्रशिक्षण का अभाव, आदि।
→ न्यायपालिका में भ्रष्टाचार: यहाँ पर जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है, सूचना का अधिकार कानून के दायरे से बाहर होने के कारण इसमें पारदर्शिता की कमी है, कोलेजियम प्रणाली के कारण नियुक्तिओं में भाई-भतीजावाद का आरोप।
→ न्यायिक प्रक्रिया का अपेक्षाकृत महंगी होना तथा विचाराधीन कैदियों के अधिकारों का हनन आदि।
उपर्युक्त विसंगतियों के निवारण हेतु निम्नलिखित उपायों को अपनाया जा सकता है:
→ न्यायिक बैकलाग एवं देरी की समस्या से निपटने के लिये ब्रिटेन एवं सिंगापुर की तर्ज पर मुकदमों के निपटारों के लिये समय सीमा निश्चित की जानी चाहिये। फास्ट ट्रैक कोर्ट एवं वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणाली को बढ़ावा देना चाहिये।
→ न्यायिक पदों पर भर्ती की प्रक्रिया को बढ़ावा देना चाहिये तथा अखिल भारतीय न्यायिक सेवा को लागू किया जाना चाहिये।
→ न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को कम करने एवं पारदर्शिता तथा जवाबदेहिता को बढ़ाने के लिये इसे ‘सूचना का अधिकार’ कानून के दायरे में लाना चाहिये।
→ नियुक्तियों में कोलेजियम प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की प्रक्रिया लागू की जाए तथा एक न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक लाया जाए।
→ न्याय प्रक्रिया को सर्वसुलभ एवं समावेशी बनाने का प्रयास किया जाए। इस संदर्भ में टेली लॉ कार्यक्रम, प्रो-बोनो लीगल सर्विस तथा न्याय मित्र जैसे कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए।