→ चुनाव लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की आत्मा होती है। मतदाता राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय मुद्दों सहित अन्य कारकों से संचालित होकर समय-समय पर सरकार का निर्वाचन करते हैं।
→ जहाँ तक भारतीय संदर्भ में लोकसभा चुनावों की बात है तो मतदाता राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों को ज़्यादा वरीयता देते हैं तथा क्षेत्रीय पार्टियों के मुकाबले राष्ट्रीय पार्टियों को ज़्यादा महत्त्व प्रदान करते हैं।
→ वहीं, राज्य विधानसभाओं के चुनावों में राज्य के क्षेत्रीय मुद्दे महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, जिसके तहत बिजली की आपूर्ति, सड़कों की स्थिति, पानी की उपलब्धता, सिंचाई आदि आते है। साथ ही, इन चुनावों में वे क्षेत्रीय पार्टियों को अपेक्षाकृत ज़्यादा महत्त्व प्रदान करते हैं।
ऐसी स्थिति में यदि दोनों चुनाव एक साथ होते हैं तो:
→ जनता को राष्ट्रीय एवं प्रांतीय मुद्दों के विश्लेषण करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाएगा।
→ कुछ खास मुद्दों को महत्त्वपूर्ण बनाकर क्षेत्रीय मुद्दों को गौण किये जाने की समस्या बढ़ सकती है। जैसे- भावनात्मक मुद्दों के आधार पर ध्रुवीकरण।
इसके परिणामस्वरूप निम्नलिखित चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं:
→ संघीय राज्य व्यवस्था के आदर्श पर चोट।
→ विकेंद्रीकरण के स्थान पर केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा।
→ क्षेत्रीय पार्टियों के वर्चस्व में कमी।
→ क्षेत्रीय विकास का प्रभावित होना आदि।
यद्यपि लोकसभा एवं राज्य विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने के फायदे भी हैं; जैसे:
→ इससे लगातार होने वाले चुनावों का भारी आर्थिक बोझ कम होगा।
→ इससे विभिन्न सरकारों को लगभग पाँच वर्ष तक समर्पित रूप से कार्य करने का समय मिलेगा।
→ आचार संहिता लागू होने की स्थिति में बाधित होने वाले आर्थिक विकास की गति में तेज़ी आएगी।
→ हाल में राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री द्वारा एक साथ चुनाव कराए जाने पर बल दिया गया।
→ वस्तुत: चुनाव लोकतंत्र की मूलभूत प्रक्रिया है तथा लगातार होने वाले चुनाव राजनेताओं को मतदाताओं के पास आने तथा जनता के प्रति जवाबदेह बनाने में सहायक सिद्ध होते हैं। यह क्षेत्रीय मुद्दों को मुख्यधारा में बनाए रखने के लिये भी आवश्यक जान पड़ता है। इसका एक उपाय चुनाव को दो चरणों में कराया जाना भी हो सकता है जिसकी सिफारिश संसदीय समिति ने भी की थी।