→ 12वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमण से भारत में इस्लाम का आगमन हुआ जिसने भारत की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थिति के साथ-साथ यहाँ की स्थापत्य कला को भी प्रभावित किया। उस समय हिंदू वास्तुकला में जहाँ भवन निर्माण में पत्थरों, स्तंभों एवं शहतीरों का प्रयोग किया जाता था, वहीं इस्लामिक स्थापत्य कला में नोकदार मेहराब और गुंबद आदि बनाए जाते थे। हिंदू-मुस्लिम स्थापत्य कला के इस मिश्रण से कला की एक नई तकनीक विकसित हुई, जिसे इंडो-इस्लामिक वास्तुकला कहा गया।
→ इस कला में भारतीय एवं ईरानी शैलियों के मिश्रण के प्रमाण मिलते हैं। साथ ही सुल्तानों, अमीरों एवं सूफियों के मकबरे के निर्माण की परंपरा भी इसी कला के साथ शुरू हुई।
→ शहतीरी शिल्पकला और मेहराबी गुंबद कला का सुंदर समन्वय इस स्थापत्य कला की मुख्य विशेषता है।
→ गुंबद और मेहराब इस्लाम की देन नहीं है, वस्तुतः इसकी आंतरिक संरचना रोम में मिलती है और इसे भारत लाने का श्रेय कुषाण शासकों को दिया जाता है। परंतु भारत में इसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय तुर्की शासकों को दिया जाता है।
→ गुंबद और मेहराब की संरचना ने विशाल सभा भवन के निर्माण को सहज बना दिया। गुंबद और मेहराब ने बड़ी संख्या में स्तंभों की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। इसके माध्यम से भवनों में विशालता और मजबूती दोनों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
→ भवन निर्माण सामग्री में पत्थरों का खूब प्रयोग किया गया और पत्थरों को आपस में जोड़ने के लिये चूना पत्थर, गारा, जिप्सम का प्रयोग किया गया।
→ इमारतों की साज-सज्जा में भारतीय अलंकरण और इस्लामिक सादगी का समन्वय हुआ जो कि ‘अरबस्क शैली’ के रूप में उभरकर सामने आई।
→ चूँकि इस्लाम में प्राणियों के चित्रण को मान्यता प्राप्त नहीं थी, अतः अलंकरण में फूल-पत्ती एवं ज्यामितीय प्रतीकों का प्रयोग किया जाता था, जिसके तहत कमल, स्वास्तिक, कलश, कुरान की आयतों और घंटियों का भी प्रयोग किया गया।
→ अतः इंडो-इस्लामिक स्थापत्य कला में धार्मिक एवं धर्मनिरपेक्ष पहलू शामिल हैं, जो कि हिंदू और इस्लामिक शैली के सम्मिश्रण की स्पष्ट छाप छोड़ते हैं।