→ आधुनिक उद्योग प्रणाली ने 19वीं सदी की दूसरी छमाही में भारत में प्रवेश किया। इस प्रक्रिया में, बड़ी संख्या में भारतीय आबादी एक श्रमिक वर्ग के रूप में उभरी और उन्हें उन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ा जो पश्चिमी यूरोप के औद्योगीकरण और बाकी पश्चिमी देशों में देखने को मिली।
→ पुरातन राष्ट्रवादी राष्ट्रीय आंदोलन को वर्ग के आधार पर विभाजित नहीं करना चाहते थे। इसलिये वे मज़दूरों के हितों से जुड़ाव नहीं रखते थे। वे भी भारतीय और ब्रिटिश स्वामित्व वाले कारखानों के बीच भेदभाव रखते थे और उनका मानना था कि श्रम कानून भारतीय स्वामित्व वाली फैक्ट्रियों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रभावित करते हैं। इसलिये उनके मज़दूरों के प्रति प्रयास परोपकारी प्रकृति के थे।
→ 20वीं सदी में मज़दूर वर्ग के विकास ने राष्ट्रवादी नेताओं के बीच एक नए परिप्रेक्ष्य को उत्पन्न किया और वे राष्ट्रीय आंदोलन को मज़बूत करने के लिये मज़दूरों की सुरक्षा की ज़रूरत महसूस करने लगे। इसे हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते हैं-
→ कुछ प्रमुख नेताओं जैसे विपिन चन्द्र पाल, तिलक और जी सुब्रमण्यम अय्यर ने मज़दूरों के लिये बेहतर परिस्थितियों और अन्य श्रम सुधारों की भी मांग की।
→ गांधी जी ने भी श्रमिक संगठन आंदोलन का समर्थन किया और उन्हें व्यवस्थित करने के लिये ज़रूरत महसूस की। उन्होंने अहमदाबाद मिल हड़ताल में श्रमिकों का समर्थन किया।
→ 1920 में एटक (AITUC-All India Trade Union Congress) का गठन किया गया और लाला लाजपत राय पहले निर्वाचित अध्यक्ष बने। उनके समर्थन की वजह से 1926 में ट्रेड यूनियन एक्ट पारित किया गया।
→ दूसरी ओर, कार्यकर्त्ताओं ने भी राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन किया और बड़े पैमाने में आंदोलन में भाग लिया जैसे- स्वदेशी आंदोलन, खिलाफत आंदोलन आदि।
→ 1920 के मध्य में ट्रेड यूनियनों में कम्युनिस्ट आंदोलन का प्रभाव बढ़ गया और इसने आंदोलनों में आतंकवादी और क्रांतिकारी तत्त्वों का समावेशन किया।
→ इसके परिणामस्वरूप सरकार ने इसके खिलाफ एक दमनकरी नीति अपनाई और इस संदर्भ में ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट पास किया गया और मेरठ षड्यंत्र में मज़दूर नेताओं को जेल भेज दिया। इसके कारण राष्ट्रीय आंदोलन में मज़दूरों की सहभागिता घटी।
→ 1931 में ट्रेड यूनियन का विभाजन हो गया और कांग्रेस के सोशलिस्ट विचारधारा वाले नेता मज़दूरों के हित के लिये आगे आए।
→ 1937 के चुनाव में एटक ने कांग्रेस का समर्थन किया जिस कारण ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में इज़ाफा हुआ।
→ भारत छोड़ो आंदोलन से कम्युनिस्ट पार्टी की असंतुष्टि के बावजूद श्रमिकों ने बड़े पैमाने में इसका समर्थन किया।
→ इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान श्रमिक संगठनों और राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं का एक-दूसरे के प्रति दृष्टिकोण लगातार परिवर्तित होता रहा।